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थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है; थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है। चिनगारी .....




  #1  
08-01-2012
Junior Member
 
: Aug 2012
: New Delhi
: 40
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: 1 | 0.00 Per Day
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है


वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

चिनगारी बन गई लहू की बूँद गिरी जो पग से; चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण - चिह्न जगमग - से। शुरू हुई आराध्य-भूमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही; और नहीं तो पाँव लगे हैं, क्यों पड़ने डगमग - से? बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से हॄदय चीरते तम का, सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का। एक खेय है शेष किसी विधि पार उसे कर जाओ; वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का। आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है,
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्तकर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा, लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा। जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलायेगी ही, अम्बर पर घन बन छायेगा ही उच्छवास तुम्हारा। और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

 




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