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अन्तिम फैसला अण्णाजी का होअण्णा जी के वर्तमान आन्दोलन को लड़खड़ाते देखने के कारण को समझने से पूर्व काग्रेस (आरम्भ से वर्तमान तक) के ..... |
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अन्तिम फैसला अण्णाजी का हो
अण्णा जी के वर्तमान आन्दोलन को लड़खड़ाते देखने के कारण को समझने से पूर्व काग्रेस (आरम्भ से वर्तमान तक) के चरित्र को समझना पड़ेगा। बहुत दूर नही, बहुत गहराई मे नही, सिर्फ कुछ मोटी-मोटी ऐतिहासिक घटित घटनाओ पर विचार कर लेना काफी होगा। सच है काग्रेस ने बार-बार अपना नाम बदला है, चरित्र अब तक नही बदला है। अच्छे-अच्छे चरित्रवान, देषभक्त और जन-नेतृत्व को सम्हालने की क्षमता रखनेवालो को काग्रेस ने आरम्भ से ही धूल चटाया है और आज भी चटा रही है। वास्तव मे यह चरित्र कभी ब्रिटिषर्स का भारत मे था जिसे उसने ब्यूरोक्रेट्स को हस्तान्तरित किया ‘भारत और पाकिस्तान को स्वतन्त्रता के नाम पर ‘‘डोमिनियन स्टेट्स’’ का दर्जा दे कर’ और काग्रेस को वह सब कुछ सिखा दिया कि षासन कैसे किया जाता है। चूकि अग्रेजो को काग्रेस से अच्छा कोई षागिर्द मिला ही नही इसलिए काग्रेस को ही सत्ता सौप कर (रात को 12 बजे) वे चले गये ? कुछ घटनाओ पर विचार करे जिसे काग्रेस ने निपटा दिया:- 1. अग्रेजो को खुली चुनौती देनेवाले नेताजी सुभासचन्द्र बोस, सरदार भगत सिह आदि जैसे क्रान्तिकारियो को किनारे लगा दिया गया अथवा विवष हो कर उनके चित्रो को दिवाल पर लटका दिया गया। 2. गान्धी के नेतृत्व को सर्वोपरि करते हुए स्वतन्त्रता सग्राम का श्रेय काग्रेस ने स्वयम् लेना षुरु किया (1952 के पहले चुनाव का नारा था ‘काग्रेस ने क्या किया, देष को आजाद किया’) और गान्धी के इस सुझाव को दरकिनार कर दिया कि ‘‘काग्रेस का काम पूरा हुआ, अब इसे भग कर देना चाहिए’’। 3. अच्छा हुआ ‘बापू’ देष की दुर्गति देखने से पहले ही चले गये, यद्यपि उन्होने यह तो देखा ही कि सत्ता के लोभ मे कैसे एक अप्रिय व्यक्ति को पटेल के स्थान पर सत्ता की कुर्सी देना पड़ा, कैसे देष के तिरगे झण्डे मे चक्र के स्थान पर ‘दो-बैलो की जोड़ी’ लगा कर काग्रेस का तिरगा बना दिया गया और कैसे अग्रेजो के बनाए कानून पर ही देष का षासन चलने लगा। 4. अग्रेजो ने तो सिर्फ भारत का विभाजन किया था लेकिन काग्रेस ने भारतीय सविधान बनाते-बनाते ही ‘‘वोटो’’ का विभाजन करना षुरु कर दिया था क्योकि उन्हे पता था कि अमेरिका की तरह यदि दो-दलो के मध्य चुनाव मे वोट पड़ा तो बहुमत के आधार पर काग्रेस सत्ता मे आ ही नही सकती, इसलिए उसने कई मार्ग अपनाए -- चुनाव लड़नेवालो की षैक्षणिक योग्यता नकारी गई, चुनाव मे कितने न्यूनतम वोट पड़े इसे छोड़ दिया गया, बहुदलो के बीच बहुमत पानेवाला दल ही षासन करता रहे इसकी व्यवस्था की गई, आदि-आदि। 5. चुनावी पार्टियो की समझ बढ़ी कि सत्ता पाई जा सकती है तो जनसेवा का स्थान बलसेवा ने ले लिया, लोहिया का स्थान मुलायम ने ले लिया, दीनदयाल का स्थान गडकरी ने ले लिया आदि-आदि और ऐसे ही काग्रेस के पदचिन्हो पर चलते हुए जब स्थान लेनेवालो की तादात बढ़ने लगी तो मिली-जुली सरकार चलाने का अचूक मन्त्र बिरयानी खानेवाले ने दे दिया। फिर क्या है, सत्तालोलुपो को आदर्ष, न्याय और जन-सेवा की सीधी बात कभी समझ मे आएगी ? जनलोकपाल बिल के बहाने अण्णाजी के कुषल नेतृत्व मे आगे आनेवाले देषभक्त साथियो, आपकी लड़ाई आज तक लड़ी ही नही गई ! जो लड़ने आये उन्हे निपटा दिया गया, और अब तो निपटाने का मिली-जुड़ी सरकार चलाने का अनुभव भी हो गया है ‘नेताओ’ को !! आपके सामने छद्म काग्रेस है (काग्रेस तो निजलिगप्पा के समय ही समाप्त हो चुकी है), मिली-जुली सरकार को चलानेवाले कैसे भी चलानेवाले नेता है, वोटरो (जनता) को विभाजित रखने मे माहिर खिलाड़ी मैदान मे है और जरूरत पड़ने पर ‘एमरजेन्सी’ लगा कर अंग्रेजो के नक्षेकदम पर चलते हुए जनता कुचल देने की क्षमता रखनेवाले ‘ब्यूरोक्रेट्स’ भी मौजूद है !!! ऐसी स्थिति मे जनान्दोलन चलाना क्या आसान है या होगा, सोचना यही है ‘इण्डिया अगेन्स्ट करप्षन’ की टीम को। अण्णाजी के नेतृत्व को वरदान समझ हमने स्वीकार किया है, हम पीछे हटनेवाले नही है बषर्ते अन्तिम फैसला उन्ही का हो। |